(Hindi) Sabhyata Ka Rahasya

(Hindi) Sabhyata Ka Rahasya

यों तो मेरी समझ में दुनिया की एक हजार एक बातें नहीं आती, जैसे लोग सुबह उठते ही बालों पर छुरा क्यों चलाते हैं? क्या अब आदमियों में भी इतनी नजाकत आ गयी है कि बालों का बोझ उनसे नहीं सँभलता? एक साथ ही सभी पढ़े-लिखे आदमियों की आँखें क्यों इतनी कमजोर हो गयी है? दिमाग की कमजोरी ही इसका कारण है या और कुछ? लोग खिताबों के पीछे क्यों इतने हैरान होते हैं? वगैरह-वगैरह । लेकिन इस समय मुझे इन बातों से मतलब नहीं है । मेरे मन में एक नया सवाल उठ रहा है और उसका जवाब मुझे कोई नहीं देता।

सवाल यह है कि सभ्य कौन है और असभ्य कौन? सभ्यता के लक्षण क्या हैं? सरसरी नजर से देखिए, तो इससे ज्यादा आसान और कोई सवाल ही न होगा। बच्चा-बच्चा इसका जवाब दे सकता है। लेकिन जरा गौर से देखिए, तो सवाल इतना आसान नहीं जान पड़ता। अगर कोट-पैंट  पहनना, टाई-हैट लगाना, मेज पर बैठकर खाना खाना, दिन में तेरह बार कोको या चाय पीना और सिगार पीते हुए चलना सभ्यता है, तो उन गोरों को भी सभ्य कहना पड़ेगा, जो सड़क पर बैठकर शाम को कभी-कभी टहलते नजर आते हैं; शराब के नशे से आँखें सुर्ख, पैर लड़खड़ाते हुए, रास्ता चलने वालों को बेवजह  छेड़ने की धुन जिन पर सवार रहती है ! क्या उन गोरों को सभ्य कहा जा सकता है? कभी नहीं। तो यह सिद्ध हुआ कि सभ्यता कोई और ही चीज है, उसका शरीर से इतना सम्बन्ध नहीं है जितना मन से है ।

मेरे गिने-चुने  दोस्तों में एक राय रतनकिशोर भी हैं। वह बहुत ही अच्छे दिल के, दयालु, बहुत पढ़े लिखे और एक बड़े पद पर काम करते हैं। बहुत अच्छी तनख्वाह पाने पर भी उनकी आमदनी खर्च के लिए काफी नहीं होती थी । एक चौथाई तनख्वाह तो बँगले पर ही खर्च हो जाती है। इसलिए वो  अक्सर चिंता में रहते हैं। रिश्वत तो नहीं लेते, कम-से-कम मैं नहीं जानता, हालाँकि कहने वाले कहते हैं, लेकिन इतना जानता हूँ कि वह भत्ता (सैलरी) बढ़ाने के लिए दौरे पर बहुत रहते हैं, यहाँ तक कि इसके लिए हर साल बजट में किसी दूसरे बहाने से रुपये निकालने पड़ते हैं।

उनके अफसर कहते हैं, इतने दौरे क्यों करते हो, तो जवाब देते हैं, इस जिले का काम ही ऐसा है कि जब तक खूब दौरे न किए जाएँ जनता  शांत नहीं रह सकती। लेकिन मजा तो यह है कि राय साहब उतने दौरे असल में नहीं करते, जितने कि अपने डायरी में लिखते हैं। उनके पड़ाव शहर से पचास मील पर होते हैं। खेमे वहाँ गड़े रहते हैं, कैंप के कर्मचारी वहाँ पड़े रहते हैं और राय साहब घर पर दोस्तों के साथ गप-शप करते रहते हैं, पर किसी की मजाल है कि राय साहब की नीयत पर शक कर सके। उनके सभ्य आदमी होने में किसी को शक नहीं हो सकता।

एक दिन मैं उनसे मिलने गया। उस समय वह अपने घास वाले दमड़ी को डाँट रहे थे। दमड़ी रात-दिन का नौकर था, लेकिन रोटी खाने घर जाया करता था। उसका घर थोड़ी ही दूर पर एक गाँव में था। कल रात को किसी कारण से यहाँ न आ सका। इसलिए डाँट पड़ रही थी।

राय साहब- “जब हम तुम्हें रात-दिन के लिए रखे हुए हैं, तो तुम घर पर क्यों रहे? कल के पैसे कट जायेंगे।”

दमड़ी- “हजूर, एक मेहमान आ गये थे, इसी से न आ सका।”

राय साहब- “तो कल के पैसे उसी मेहमान से लो।”

दमड़ी- “सरकार, अब कभी ऐसी गलती न होगी।”

राय साहब- “बक-बक मत करो।”

दमड़ी- “हजूर……”

राय साहब- “दो रुपये जुरमाना।”

दमड़ी रोता चला गया। माफी मांगने आया था, उल्टे सजा मिल गई। दो रुपये जुरमाना ठुक गया। गलती यही थी कि बेचारा कसूर माफ कराना चाहता था।
यह एक रात को गैरहाज़िर होने की सजा थी! बेचारा दिन-भर का काम कर चुका था, रात को यहाँ सोया न था, उसकी सजा और घर बैठे पैसे  उड़ाने वाले को कोई नहीं पूछता! कोई सजा नहीं देता। सजा तो मिले और ऐसी  मिले कि जिंदगी-भर याद रहे; पर पकड़ना तो मुश्किल है। दमड़ी भी अगर होशियार होता, तो सुबह होने से पहले आकर कमरे में सो जाता। फिर किसे खबर होती कि वह रात को कहाँ रहा। पर गरीब इतना चंट न था।

दमड़ी के पास कुल छ: बिस्वे जमीन थी। पर इतने ही लोगों का खर्च भी था। उसके दो लड़के, दो लड़कियाँ और पत्नी, सब खेती में लगे रहते थे, फिर भी पेट की रोटियाँ नहीं जुटती थीं। इतनी जमीन क्या सोना उगल देती! अगर सब-के-सब घर से निकल मजदूरी करने लगते, तो आराम से रह सकते थे; लेकिन खानदानी किसान मजदूर कहलाने का अपमान न सह सकता था।

इस बदनामी से बचने के लिए दो बैल बाँध रखे थे! उसके तनख्वाह का बड़ा भाग बैलों के दाने-चारे ही में उड़ जाता था। ये सारी तकलीफें मंजूर थीं, पर खेती छोड़कर मजदूर बन जाना मंजूर न था। किसान की जो इज्जत है, वह कहीं मजदूर की हो सकती है, चाहे वह रुपया रोज ही क्यों न कमाये? किसानी के साथ मजदूरी करना इतने अपमान की बात नहीं, दरवाजे पर बँधे हुए बैल उसकी मान-रक्षा किया करते हैं, पर बैलों को बेचकर फिर कहाँ मुँह दिखलाने की जगह रह सकती है!

एक दिन राय साहब उसे सर्दी से काँपते देखकर बोले- “कपड़े क्यों नहीं बनवाता? काँप क्यों रहा है?”

दमड़ी- “सरकार, पेट की रोटी तो पूरी नहीं पड़ती, कपड़े कहाँ से बनवाऊँ?”

राय साहब- “बैलों को बेच क्यों नहीं डालता? सैकड़ों बार समझा चुका, लेकिन न-जाने क्यों इतनी मोटी-सी बात तेरी समझ में नहीं आती।”

दमड़ी- “सरकार, बिरादरी में कहीं मुँह दिखाने लायक न रहूँगा। लड़की की सगाई न हो पायेगी, जाति से बाहर कर दिया जाऊँगा।”

राय साहब- “इन्हीं बेवकूफियों से तुम लोगों की यह बुरी हालत हो रही है। ऐसे आदमियों पर दया करना भी पाप है। (मेरी तरफ मुड़कर) क्यों मुंशीजी, इस पागलपन का भी कोई इलाज है? जाड़ों मर रहे हैं, पर दरवाजे पर बैल जरूर बाँधेंगे।”

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मैंने कहा- “जनाब, यह तो अपनी-अपनी समझ है।”

राय साहब- “ऐसी समझ को दूर से सलाम कीजिए। मेरे यहॉं कई पीढ़ियों से जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता था। कई हजार रुपयों पर पानी फिर जाता था। गाना होता था; दावतें होती थीं, रिश्तेदारों को न्योते दिये जाते थे, गरीबों को कपड़े बाँटे जाते थे। पिताजी के बाद पहले ही साल मैंने उत्सव बन्द कर दिया। फायदा क्या? मुफ्त में चार-पाँच हजार की चपत खानी पड़ती थी। सारे कसबे में बवाल  मचा, आवाजें कसी गयीं, किसी ने नास्तिक कहा, किसी ने ईसाई बनाया लेकिन यहाँ इन बातों की क्या परवाह !

आखिर थोड़े ही दिनों में सारा हल्ला शान्त हो गया। अजी, बड़ी दिल्लगी थी। कस्बे में किसी के यहाँ शादी हो, लकड़ी मुझसे ले! पीढ़ियों से यह रस्म चली आती थी। पिताजी तो दूसरों से पेड़ खरीदकर इस रस्म को निभाते थे। थी ना बेवकूफी या नहीं? मैंने फौरन लकड़ी देना बन्द कर दिया। इस पर भी लोग बहुत रोये-धोये, लेकिन दूसरों का रोना-धोना सुनूँ, या अपना फायदा देखूँ। लकड़ी से कम-से-कम 500 रुपये सलाना की बचत हो गयी। अब कोई भूलकर भी इन चीजों के लिए तंग  करने नहीं आता।”

मेरे दिल में फिर सवाल पैदा हुआ, दोनों में कौन सभ्य है, मान-मर्यादा  पर जान देने वाला बेवकूफ दमड़ी; या दौलत  पर कुल-मर्यादा की बलि चढाने वाले राय रतन किशोर!

राय साहब की अदालत में एक बड़ा मुकदमा पेश था। शहर का एक अमीर खून के मामले में फँस गया था। उसकी जमानत के लिए राय साहब की खुशामदें होने लगीं। इज्जत की बात थी। अमीर साहब का हुक्म था कि चाहे रियासत बिक जाय, पर इस मुकदमे से बेदाग निकल जाऊँ। तोहफे भेजे गए, सिफारिशें पहुँचाई गयीं, पर राय साहब पर कोई असर न हुआ। अमीर के आदमियों को सीधे-सीधे रिश्वत की चर्चा करने की हिम्मत न पड़ती थी। आखिर जब कोई बस न चला, तो अमीर की पत्नी से मिलकर सौदा पटाने की ठानी।

रात के दस बजे थे। दोनों औरतों में बातें होने लगीं। 20 हजार की बातचीत थी! राय साहब की पत्नी तो इतनी खुश हुईं कि उसी समय राय साहब के पास दौड़ी हुई आयी और कहनें लगी- “ले लो, ले लो।”

राय साहब ने कहा- “इतनी हड़बड़ी न करो। वह तुम्हें क्या समझेंगी? कुछ अपनी इज्जत का भी ख्याल है या नहीं? माना कि रकम बड़ी है और इससे मैं एक बार में तुम्हारी आये दिन की फरमायशों से मुक्त हो जाऊँगा, लेकिन एक सिविलियन की इज्जत भी तो कोई मामूली चीज नहीं है। तुम्हें पहले बिगड़कर कहना चाहिए था कि मुझसे ऐसी बेकार बातचीत करनी हो, तो यहाँ से चली जाओ। मैं ये सब  नहीं सुनना चाहती।”

पत्नी- “यह तो मैंने पहले ही किया, बिगड़कर खूब खरी-खोटी सुनायीं। क्या इतना भी नहीं जानती? बेचारी मेरे पैर पर सर रखकर रोने लगी।”

राय साहब- “यह कहा था कि राय साहब से कहूँगी, तो मुझे कच्चा ही चबा जायेंगे?”

यह कहते हुए राय साहब ने खुश होकर पत्नी को गले लगा लिया।

पत्नी- “अजी, मैं न-जाने ऐसी कितनी ही बातें कह चुकी, लेकिन किसी तरह टाले नहीं टलती। रो-रोकर जान दे रही है। राय साहब- “उससे वादा तो नहीं कर लिया?”

पत्नी- “वादा? मैं रुपये लेकर बक्से में रख आयी। नोट थे।”

राय साहब- “कितनी बड़ी बेवकूफ हो, न मालूम भगवान तुम्हें कभी समझ भी देगा या नहीं।”

पत्नी- “अब क्या देगा? देना होता, तो दे न दी होती।”

राय साहब- “हाँ मालूम तो ऐसा ही होता है। मुझसे कहा तक नहीं और रुपये लेकर बक्से  में डाल दिए! अगर किसी तरह बात खुल जाय, तो मैं कहीं का न रहूँ।”

पत्नी- “तो भाई, सोच लो। अगर कुछ गड़बड़ हो, तो मैं जाकर रुपये लौटा दूँ।”

राय साहब- “फिर वही बेवकूफी! अरे, अब तो जो कुछ होना था, हो चुका। भगवान पर भरोसा करके जमानत लेनी पड़ेगी। लेकिन तुम्हारी बेवकूफी में शक नहीं है । जानती हो, यह साँप के मुँह में उँगली डालने जैसा है। यह भी जानती हो कि मुझे ऐसी बातों से कितनी नफरत है, फिर भी हड़बड़ी कर बैठती हो। अबकी बार तुम्हारी बेवकूफी से मेरी कसम टूट रही है। मैंने दिल में ठान लिया था कि अब इस मामले में हाथ न डालूँगा, लेकिन तुम्हारी बेवकूफी के मारे जब मेरी कुछ चलने न पाएगी ?”

पत्नी- “मैं जाकर लौटा देती हूँ।”

राय साहब- “और मैं जाकर जहर खा लेता हूँ।”

इधर तो पत्नी-आदमी में यह नाटक हो रहा था, उधर दमड़ी उसी समय अपने गाँव के मुखिया के खेत से जुआर काट रहा था। आज वह रात-भर की छुट्टी लेकर घर गया था। बैलों के लिए चारे का एक तिनका भी नहीं है। अभी तनख्वाह मिलने में कई दिन की देर थी, ख़रीद न सकता था। घर वालों ने दिन को कुछ घास छीलकर खिलायी तो थी, लेकिन उतनी घास से क्या हो सकता था। दोनों बैल भूखे खड़े थे। दमड़ी को देखते ही दोनों पूँछ खड़ी करके हुँकारने लगे। जब वह पास गया तो दोनों उसकी हथेलियाँ चाटने लगे। बेचारा दमड़ी मन मसोसकर रह गया। सोचा, इस समय तो कुछ हो नहीं सकता, सबेरे किसी से कुछ उधार लेकर चारा लाऊँगा।

लेकिन जब ग्यारह बजे रात उसकी आँखें खुलीं, तो देखा कि दोनों बैल अभी तक नाँद पर खड़े हैं। चाँदनी रात थी, दमड़ी को जान पड़ा कि दोनों उसकी ओर उम्मीद और प्रार्थना की नजर से देख रहे हैं। उनकी भुख देखकर उसकी आँखें गीली हो आयीं। किसान को अपने बैल अपने बच्चों की तरह प्यारे होते हैं। वह उन्हें जानवर नहीं, अपना दोस्त और साथी समझता है । बैलों को भूखे खड़े देखकर नींद आँखों से भाग गयी। कुछ सोचता हुआ उठा। हँसिया निकाली और चारे की फिक्र में चला गया ।

गाँव के बाहर बाजरे और जुआर के खेत खड़े थे। दमड़ी के हाथ काँपने लगे। लेकिन बैलों की याद ने उसे बेचैन कर दिया। चाहता, तो कई बोझ काट सकता था; लेकिन वह चोरी करते हुए भी चोर न था। उसने सिर्फ उतना ही चारा काटा, जितना बैलों को रात-भर के लिए काफी हो। सोचा, अगर किसी ने देख भी लिया, तो उससे कह दूँगा, बैल भूखे थे, इसलिए काट लिया। उसे यकीन था कि थोड़े-से चारे के लिए कोई मुझे पकड़ नहीं सकता। मैं कुछ बेचने के लिए तो काट नहीं रहा हूँ; फिर ऐसा बेरहम कौन है, जो मुझे पकड़ ले। बहुत करेगा तो अपने दाम ले लेगा। उसने बहुत सोचा। चारे का थोड़ा होना ही उसे चोरी के अपराध से बचाने के लिए काफी था।

चोर उतना काटता है  जितना उससे उठ सकता है । उसे किसी के फायदे और नुकसान से क्या मतलब? गाँव के लोग दमड़ी को चारा लिये जाते देखकर बिगड़ते जरूर, पर कोई चोरी के इलजाम में न फँसाता, लेकिन संयोग से हल्के के थाने का सिपाही उधर जा निकला। वह पड़ोस के एक बनिये के यहाँ जुआ होने की खबर पाकर कुछ ऐंठने की टोह में आया था। दमड़ी को चारा सिर पर उठाते देखा, तो शक हुआ। इतनी रात गये कौन चारा काटता है? हो न हो, कोई चोरी से काट रहा है, डाँटकर बोला- “कौन चारा लिए जाता है? खड़ा रह!

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