Why Should You Read This Summary?
लाला गोपीनाथ को जवानी में ही दर्शन यानी philosophy से प्यार हो गया था। अभी वह इंटरमीडियट क्लास में थे कि मिल और बर्कले के साइंटिफिक विचार उनको मुंह जबानी याद हो गये थे। उन्हें किसी तरह की मौज मस्ती में दिलचस्पी न थी। यहाँ तक कि कॉलेज के क्रिकेट-मैच में भी उन्हें उत्साह न होता था। हंसी मजाक से कोसों दूर भागते और उनसे प्रेम की बात करना तो मानो बच्चे को भूत से डराना था।
सुबह घर से निकल जाते और शहर से बाहर किसी घने पेड़ की छाँव में बैठकर philosophy पढ़ने में लग जाते। कविता, अलंकार, नॉवेल सभी को त्याग देने लायक समझते थे। शायद ही अपने जीवन में उन्होंने कोई किस्से-कहानी की किताब पढ़ी हो। इसे सिर्फ समय का गलत इस्तेमाल ही नहीं बल्कि मन और दिमाग के विकास के लिए खतरनाक समझते थे। इसका मतलब यह नहीं कि उनमें उत्साह नहीं था। सेवा-समितियों में बड़े उत्साह से भाग लेते। अपने देश वासियों की सेवा के किसी मौके को हाथ से न जाने देते। अक्सर मुहल्ले के छोटे-छोटे दूकानदारों की दूकान पर जा बैठते और उनके व्यापार में होने वाले उतार चढ़ाव के बारे में सुनते।
धीरे-धीरे कॉलेज से उन्हें नफरत हो गयी। उन्हें अब अगर किसी चीज़ से प्रेम था तो वह दर्शन था। कॉलेज में कई सब्जेक्ट उनके दर्शन के प्रेम में रुकावट थे । इसलिए उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया और ध्यान से साइंस पढ़ने लगे। लेकिन दर्शन से प्रेम के साथ ही साथ उनका देश से प्रेम भी बढ़ता गया और कॉलेज छोड़ने के थोड़े ही दिनों बाद वह कम्पल्सरी जाति-सेवकों के दल में शामिल हो गये। दर्शन में धोखा था, शक था, अंधेरा था जाति-सेवा में इज्जत था, नाम था और दोनों की अच्छी इच्छाएँ थीं। उनका अच्छाई से प्रेम जो सालों से वैज्ञानिक वादों के नीचे दबा हुआ था हवा की तेजी के साथ निकल पड़ा।
शहर के पब्लिक इलाके में कूद पड़े। देखा तो मैदान खाली था। जिधर आँख उठाते सन्नाटा दिखाई देता। झंडे उठाने वालों की कमी न थी पर सच्चे दिल कहीं नजर न आते थे। चारों ओर से उनकी खींच होने लगी। किसी संस्था के मंत्री बने किसी के प्रधान किसी के कुछ किसी के कुछ। इसके आवेश में दर्शन से प्रेम भी चला गया। पिंजरे में गाने वाली चिड़िया खुले आसमान में आकर अपना गाना भूल गयी। अब भी वह समय निकाल कर दर्शन ग्रंथों के पन्ने उलट-पलट लिया करते थे पर सोच और अपनाने का समय कहाँ ! रोज मन में यह जंग होती रहती कि किधर जाऊँ, इधर विज्ञान अपनी ओर खींचता उधर देश अपनी ओर खींचता।
एक दिन वह इसी उलझन में नदी के किनारे बैठे हुए थे। पानी की लहरें किनारे के नजारों और हवा के उल्टे झोंकों की परवाह न करते हुए बड़ी तेजी के साथ अपनी मंजिल की ओर बढ़ी चली जाती थी पर लाला गोपीनाथ का ध्यान इस तरफ न था। वह अपनी यादों से किसी ऐसे ज्ञानी आदमी को खोज निकालना चाहते थे जिसने जाति-सेवा के साथ विज्ञान की भी पढ़ाई की हो। अचानक उनके कॉलेज के एक टीचर पंडित अमरनाथ अग्निहोत्री आकर पास बैठ गये और बोले- "कहिए लाला गोपीनाथ क्या खबर है?"
गोपीनाथ कुछ और ही सोचते हुए जवाब दिया- "कोई नयी बात तो नहीं हुई। धरती अपनी गति से चली जा रही है।"
अमरनाथ- "म्युनिसिपल-ward नम्बर 21 की जगह खाली है उसके लिए किसे चुनना तय किया है।"
गोपी- "देखिए कौन होता है। आप भी खड़े हुए हैं।"
अमर- "अजी मुझे तो लोगों ने जबरदस्ती घसीट लिया। नहीं तो मुझे इतनी फुर्सत कहाँ।"
गोपी- "मेरा भी यही विचार है। टीचर का राजनीति में फँसना अच्छी बात नहीं है ।"
अमरनाथ इस ताने से बहुत शर्मिंदा हुए। एक पल के बाद बदले के भाव से बोले- "तुम आजकल दर्शन का अभ्यास करते हो या नहीं?"
गोपी- "बहुत कम। इसी मुश्किल में पड़ा हुआ हूँ कि देश की सेवा के रास्ते पर जाऊँ या सच्चाई की खोज में जीवन बीता दूं?"
अमर- "देश सेवा के संस्थानों में शामिल होने का समय अभी तुम्हारे लिए नहीं आया। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है जब तक सोच में गंभीरता और सिद्धांतों पर पक्का यकीन न हो जाय उस समय तक सिर्फ पल भर के जोश में आकर किसी काम में कूद पड़ना अच्छी बात नहीं। देश की सेवा बड़ी जिम्मेदारी का काम है।"
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