Why Should You Read This Summary?
महाशय मेहता उन बदनसीबों में थे, जो अपने मालिक को खुश नहीं रख सकते थे। वह दिल से अपना काम करते थे और चाहते थे कि उनकी तारीफ हो। वह यह भूल जाते थे कि वह काम के नौकर तो हैं ही, अपने मालिक के सेवक भी हैं। जब उनके अन्य सहकारी मालिक के दरबार में हाजिरी देते थे, तो वह बेचारे दफ्तर में बैठे कागजों से सिर मारा करते थे।
इसका फल यह था कि मालिक के सेवक तो तरक्कियाँ पाते थे, इनाम और बोनस उड़ाते थे और काम के सेवक मेहता किसी-न-किसी अपराध में निकाल दिये जाते थे। ऐसे कड़वे अनुभव उन्हें अपने जीवन में कई बार हो चुके थे; इसलिए अबकी जब राजा साहब सतिया ने उन्हें एक अच्छा पद दिया, तो उन्होंने कसम खाई कि अब वह भी मालिक का रुख देखकर काम करेंगे। और उनकी तारीफ में ही किस्मत की परीक्षा करेंगे। और इस कसम को उन्होंने कुछ इस तरह निभाया कि दो साल भी न गुजरे थे कि राजा साहब ने उन्हें अपना दीवान बना लिया। एक आजाद राज्य की दीवानी का क्या कहना!
तनख्वाह तो 500 रुपए महीने की ही थी, मगर हक बड़े लम्बे थे । राई का पर्वत करो, या पर्वत से राई, कोई पूछने वाला न था। राजा साहब भोग-विलास में पड़े रहते थे, राज्य चलाने का सारा भार मि. मेहता पर था। रियासत के सभी अमले और कर्मचारी पैर छूते, बड़े-बड़े अमीर नजराने देते, यहाँ तक कि रानियाँ भी उनकी खुशामद करतीं। राजा साहब गुस्सैल स्वभाव के इंसान थे, जैसे अक्सर राजा होते हैं।
कमजोरों के सामने शेर, ताकतवरों के सामने भीगी बिल्ली। कभी मि. मेहता को डाँट-फटकार भी बताते; पर मेहता ने अपनी सफाई में एक शब्द भी मुँह से निकालने की कसम खा ली थी। सिर झुकाकर सुन लेते। राजा साहब के गुस्से की आग ईंधन न पाकर शान्त हो जाती।
गर्मियों के दिन थे। पॉलिटिकल एजेन्ट का दौरा था। राज्य में उनके स्वागत की तैयारियाँ हो रही थीं। राजा साहब ने मेहता को बुलाकर कहा- "मैं चाहता हूँ, साहब बहादुर यहाँ से मेरी तारीफ करते हुए जायँ।"
मेहता ने सिर झुकाकर विनीत भाव से कहा- "कोशिश तो ऐसी ही कर रहा हूँ, अन्नदाता!
"कोशिश तो सभी करते हैं; मगर वह कोशिश कभी सफल नहीं होती। मैं चाहता हूँ, तुम पक्के तौर पर कहो ऐसा ही होगा।"
"ऐसा ही होगा।"
"रुपये की परवाह मत करो।"
"जो हुक्म।"
"कोई शिकायत न आये; वरना तुम जानोगे।"
"वह हुजूर को धन्यवाद देते जायँ तो सही।"
"हाँ, मैं यही चाहता हूँ।"
"जान लड़ा दूंगा, दीनबन्धु!"
"अब मुझे संतोष है!"
इधर तो पॉलिटिकल एजेन्ट का आना था, उधर मेहता का लड़का जयकृष्ण गर्मियों की छुट्टियाँ मनाने माता-पिता के पास आया। किसी यूनिवर्सिटी में पढ़ता था। एक बार 1932 में कोई भड़काऊ भाषण करने के जुर्म में 6 महीने की सजा काट चुका था। मि. मेहता को काम पर रखने के बाद जब वह पहली बार आया था तो राजा साहब ने उसे खास तौर पर बुलाया था और उससे जी खोलकर बातें की थीं, उसे अपने साथ शिकार खेलने ले गये थे और रोज उसके साथ टेनिस खेला करते थे। जयकृष्ण पर राजा साहब के साम्यवादी यानी कम्युनिस्ट विचारों का बड़ा असर पड़ा था। उसे पता चला कि राजा साहब सिर्फ देशभक्त ही नहीं, क्रांति के समर्थक भी हैं। रूस और फ्रांस की क्रांति पर दोनों में खूब बहस हुई थी। लेकिन अबकी यहाँ उसने कुछ और ही रंग देखा।
रियासत के हर एक किसान और जमींदार से ज़बरदस्ती चन्दा वसूल किया जा रहा था। पुलिस गाँव-गाँव चन्दा वसूलती फिरती थी। रकम दीवान साहब तय करते थे। वसूल करना पुलिस का काम था। फरियाद की कहीं सुनवाई न थी। चारों ओर हाहाकार मचा हुआ था। हजारों मजदूर सरकारी इमारतों की सफाई, सजावट और सड़कों की मरम्मत में बिना पैसे काम कर रहे थे। बनियों से डण्डों के जोर से रसद जमा की जा रही थी।
जयकृष्ण को आश्चर्य हो रहा था कि यह क्या हो रहा है। राजा साहब के विचार और व्यवहार में इतना बदलाव कैसे हो गया। कहीं ऐसा तो नहीं है कि महाराज को इन अत्याचारों की खबर ही न हो, या उन्होंने जिन तैयारियों का हुक्म दिया हो, उनकी तामील में कर्मचारियों ने अपनी कारगुजारी की धुन में यह अनर्थ कर डाला हो।
रात भर तो उसने किसी तरह काबू किया। सुबह उसने मेहताजी से पूछा- "आपने राजा साहब को इन अत्याचारों की खबर नहीं दी?"
मेहताजी को खुद इस अत्याचार से शर्मिंदगी हो रही थी। वह स्वभाव से दयालु इंसान थे; लेकिन परिस्थितियों ने उन्हें बेबस कर रखा था। दुखी आवाज में बोले- "राजा साहब का यही हुक्म है, तो क्या किया जाय?"
"तो आपको ऐसी हालत में अलग हो जाना चाहिए था। आप जानते हैं, जो कुछ हो रहा है, उसकी सारी जिम्मेदारी आपके सिर लादी जा रही है,जनता आप ही को अपराधी समझती है।"
"मैं मजबूर हूँ। मैंने कर्मचारियों से बार-बार इशारा किया कि जितना हो सके किसी पर सख्ती न की जाय। लेकिन हरेक जगह पर मैं मौजूद तो नहीं रह सकता। अगर सीधे रूप से दखलंदाजी करूँ, तो शायद कर्मचारी लोग महाराज से मेरी शिकायत कर दें। ये लोग ऐसे ही मौकों की ताक में तो रहते हैं। इन्हें तो जनता को लूटने का कोई बहाना चाहिए। जितना सरकारी खजाने में जमा करते हैं, उससे ज्यादा अपने घर में रख लेते हैं। मैं कुछ नहीं कर सकता।"
जयकृष्ण ने भड़क कर कहा, "तो आप इस्तीफा क्यों नहीं दे देते?"
मेहता शर्मिंदा होकर बोले, "बेशक, मेरे लिए मुनासिब तो यही था; लेकिन जीवन में इतने धक्के खा चुका हूँ कि अब और सहने की ताकत नहीं रही। यह तय है कि नौकरी करके मैं अपने को बेदाग नहीं रख सकता। धर्म और अधर्म, सेवा और परमार्थ के झमेलों में पड़कर मैंने बहुत ठोकरें खायीं। मैंने देख लिया कि दुनिया दुनियादारों के लिए है, जो मौका और समय देखकर काम करते हैं। सिद्धान्त मानने वाले लोगों के लिए यह अनुकूल जगह नहीं है।"
...............